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भारत की पर्वतीय रेल

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भारत की पर्वतीय रेल

 

19वीं शताब्दी में रेलवे के विकास ने विश्व के विविध भागों में सामाजिक और आर्थिक विकास पर अत्यधिक प्रभाव डाला था। विश्व विरासत सूची में मान्यता प्राप्त भारत के दो पर्वतीय रेल प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास संबंधी मूल्‍यों के आदान-प्रदान और एक बहु-सांस्कृतिक क्षेत्र के सामाजिक और आर्थिक विकास पर नवीन परिवहन प्रणाली के प्रभाव का उत्‍कृष्‍ट उदाहरण है जिसका उद्देश्‍य दुनिया के अनेक भागों में इस तरह के विकास के लिए एक मॉडल के रूप में कार्य करना था।

19वीं सदी के प्रारंभ में दार्जिलिंग हिमालयी रेलवे, हिल स्टेशनों की रानी के रूप में दार्जिलिंग के विकास और भारत के मुख्य चाय उगाने वाले क्षेत्रों के साथ घनिष्‍ठता के साथ जुड़ा हुआ है। दर्जिलिंग, जो अब घनी वृक्ष युक्‍त पर्वतीय क्षेत्र है पहले सिक्किम साम्राज्य का भाग था। इसको 1835 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अपने सैनिकों के लिए विश्राम स्‍थल और स्‍वास्‍थ्‍य लाभ केन्‍द्र के रूप में अपनाया गया था। जब इस क्षेत्र को सिक्किम से पट्टे पर लिया और हिल स्टेशन का निर्माण कार्य शुरू हुआ, तब सड़क मार्ग से मैदानी इलाकों को जोड़ा गया था। सन् 1878 में पूर्वी बंगाल रेलवे ने सिलीगुड़ी से स्टीम रेलवे के लिए एक विस्तृत प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जो पहले से ही कलकत्‍ता से दार्जिलिंग तक जुड़ा हुआ था। इसे सरकारी अनुमोदन प्राप्त हुआ और तुरंत निर्माण कार्य शुरू हुआ और 1881 तक यह पूरा हो गया था। सन् 1958 के बाद से सरकार के अधीन पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे द्वारा इसका प्रबंधन किया जा रहा है।